Sunday, April 21, 2024

पॉप संगीत का चमकीला सितारा

 


हिंदी सिनेमा के इस सदी में व्यावसायिक और समांतर की रेखा धुंधली हुई है.  विशाल भारद्वाज,   अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली, हंसल मेहता जैसे फिल्मकार इसके अगुआ हैं. पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई अली की फिल्म  अमर सिंह चमकीलाविषय, शिल्प और फिल्म निर्माण की दृष्टि से व्यावसायिक और समांतर सिनेमा के बीच एक पुल की तरह है. आश्चर्य नहीं है कि समांतर सिनेमा के पुरोधा मणि कौल इम्तियाज अली की तारीफ करते थे.

बहरहाल, हिंदी सिनेमा में पंजाब का दलित समाज विरले दिखता है, जबकि पंजाब मूल के फिल्मकारों का शुरू से ही दबदबा रहा है. ऐसा क्यों? अमर सिंह चमकीला की पहचान एक ऐसे लोकप्रिय पंजाबी गायक की थी, जो दलित परिवार में जन्म लेने के बावजूद अपनी प्रतिभा और संघर्ष के बूते पिछली सदी के 80 के दशक में लोगों के दिलों पर राज करते थे. यही दौर था जब पंजाब में चरमपंथियों के आतंक के साये में लोग जी रह रहे थे. इसी दौर में देश में कैसेट कल्चरके मार्फत पॉप संगीत का उभार तेजी से हो रहा था. प्रसंगवश, चर्चित गायक गुरदास मान चमकीला के समकालीन रहे.

जैसा कि नाम से स्पष्ट है यह फिल्म अमर सिंह चमकीला (1960-1988) का जीवनवृत्त है जिसे अभिनेता दिलजीत दोसांझ ने अपने अभिनय और गायन से जीवंत कर दिया है. उन्हें परिणीति चोपड़ा (अमरजोत कौर की भूमिका में) का भरपूर सहयोग मिला है. निर्देशक ने संवेदनशीलता के साथ चमकीला के जीवन संघर्ष और दुखद अंत को दर्शकों के सामने लाया है. फिल्म में जिस तेजी से दृश्यों को संयोजित किया गया है वह खटकता है. बार-बार विंडो में चमकीला-अमरजोत की पुरानी तस्वीरों (फुटेज) को दिखाया गया है, जिसे संपादित जा सकता था.

पंजाबी लोक गायन में सुरिंदर कौर, असा सिंह मस्ताना, लाल चंद यमला जाट की गायकी को लोग आज भी याद करते हैं. 80 के दशक में चमकीला की चमक ने सबको पीछे छोड़ दिया. असल में, पॉप संगीत अपने भड़कीले बोल और तेज संगीत की वजह से लोगों से जल्दी जुड़ते हैं. शादी-विवाह के अखाड़े में चमकीला की खूब मांग हो रही थी, उसके कैसेट बाजार में ब्लैकमें बिकते थे. 

सफलता के साथ उसे कई मोर्चों पर लड़ना पड़ा था.  अमरजोत कौर से उसकी दूसरी शादी जहाँ कथित उच्च जाति के लोगों को खटक रही थी, वहीं समकालीन गायकों की ईर्ष्या-द्वेष भी उसे झेलना पड़ रहा था. साथ ही चरमपंथियों, धार्मिक संगठनों के निशाने पर भी वह था. चमकीला और अमरजोत की हत्या कर दी गई.

जीवन में और हत्या के बाद भी जिस वजह से उसकी आलोचना होती रही वह अश्लील, द्विअर्थी गाने थे, जो स्त्री विरोधी थे. इस तरह के गानों के पक्ष में चमकीला की अपनी दलीलें थी. बाजार की मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के तहत उसका कहना था कि लोग यही चाहते हैं!

गीत-संगीत या कोई भी कला यदि अपने समय की उपज होती है तो समाज को परिष्कृत भी करती है. वह मूल्य निरपेक्ष नहीं हो सकती. निर्देशक ने फिल्म में अश्लीलताको लेकर एक विमर्श रचा है, जो दर्शकों को उकसाता है, पर कोई जवाब नहीं देता. जवाब दर्शकों को ही देना है.

Sunday, April 07, 2024

पहरेदारी में जीवन: एवलांच


पिछले महीने 'महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स’ (मेटा) के तहत दिल्ली में हुए नाटकों के प्रदर्शन में ‘एवलांच (हिमस्खलन)’ नाटक अपनी प्रस्तुति, विषय-वस्तु और अदाकारी को लेकर चर्चा में रहा. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के स्नातक गंधर्व दीवान के निर्देशन में हिंदुस्तानी भाषा में हुए इस नाटक का ‘स्टेज डिजाइन’ अपने-आप में अनूठा था.

नाटक को कमानी सभागार के मंच पर एक बंद स्पेस में किया गया, जहाँ पर तापमान बेहद कम रखा गया. साथ ही ऊंची पहाड़ियों पर तेज बहने वाली हवा के माध्यम से देशकाल का बोध करवाया गया था. असल में, तुर्की के नाटककार टूनजेर जूजुनलू के इसी नाम से लिखे नाटक पर आधारित यह नाटक पहाड़ी इलाके में एक गाँव में अवस्थित है. यहाँ नौ महीने तक हिमस्खलन का खतरा रहता है. इस अवधि में जोर से बोलने, हंसने, चीखने यहाँ तक कि प्रसव की भी मनाही है.
एक तरह से सत्ता ने नौ महीने तक बोलने की मनाही कर रखी है. इस नाटक में न तो पात्रों का कोई नाम हैं न किसी देश या स्थान का ही नाम लेखक-निर्देशक ने दिया है. सब पात्र आपस में फुसफुसाहट में ही बात करते हैं. यहाँ तक कि उनके कदमों की आहट भी सुनाई नहीं देती.
बोलने या दूसरो शब्दों में सत्ता से सवाल करने की मनाही एक ऐसा सच है, जो आज पूरी दुनिया में कमोबेश व्याप्त है. इस लिहाज से नाटक का विषय अति प्रासंगिक है. काफ्का के साहित्य में जो हताशा और मानवीय संत्रास है, यह नाटक देखते हुए भी हमें उसी तरह का बोध होता है.
नाटक के दौरान बंद स्पेस में घुटन और भय को हम तेजी से महसूस करते हैं. मंच पर प्रवेश करते ही जूजुनलू यह कथन लिखा हुआ दिखता है: ‘हिमस्खलन महज एक प्राकृतिक घटना नहीं है, बल्कि हमने अपने मन में इस भय का निर्माण कर रखा है’.
शार्दूल भारद्वाज, जिन्हें हमने ‘ईब आले ऊ’ फिल्म में देखा था, इस नाटक में युवा पुरुष की भूमिका में थे, वहीं श्वेता पासरिचा उनकी पत्नी की भूमिका में थी. पति के किरदार को भारद्वाज और आसन्न प्रसवा स्त्री की भूमिका को पासरिचा ने कुशलता से निभाया. विक्रम कोचर, अश्वथ भट्ट के साथ-साथ स्वरूपा घोष और राजीव गौर सिंह जैसे मंजे अभिनेता बूढ़े पति-पत्नी की प्रभावी भूमिका में मौजूद थे.
दो अंक के इस नाटक में पहला अंक बेहद धीमा है, दूसरे अंक में तीव्रता आती है. समाज के मुखिया का युवा स्त्री (पासरिचा) को जिंदा दफनाने का फरमान दिया जाता है, चूंकि उसका बच्चा समय से पहले जन्म लेने को है. अंत में उसका पति (भारद्वाज) इस फैसले का विरोध करता है और बंदूक उठा लेता है.
प्रतीकात्मक रूप से यह नाटक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सवालों को घेरे में लेती है. बोलने पर पहरेदारी सत्ता के स्वभाव के अनुकूल है, पर यह हमारी स्वतंत्रता पर भी प्रश्नचिह्न है. जैसा कि हिंदी के कवि उदय प्रकाश ने अपनी एक कविता में लिखा है: आदमी/मरने के बाद/.कुछ नहीं सोचता/ आदमी/ मरने के बाद/ कुछ नहीं बोलता/ कुछ नहीं सोचने/और कुछ नहीं बोलने पर/ आदमी मर जाता है.

Tuesday, March 26, 2024

शरीर और बुद्धि के द्वंद्व: फिर से हयवदन


चर्चित नाटककार गिरीश कर्नाड का लिखा ‘'हयवदननाटक आधुनिक रंगमंच में क्लासिक का दर्जा रखता है. मूल कन्नड़ भाषा में लिखे इस नाटक का पिछले पचास सालों में विभिन्न भाषाओं में अनेक बार मंचन हुआ है. हिंदुस्तानी में (अनुवाद बी वी कारंत) इस नाटक का मंचन महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स  (मेटा) के तहत पिछले दिनों दिल्ली में हुआ और बेस्ट ऑनसंबल (best ensemble) और सहायक अदाकार (स्त्री) की भूमिका के लिए पल्लवी जाधव को पुरस्कृत भी किया गया. सभागार जिस तरह भरा हुआ थाकहा जा सकता है कि नयी पीढ़ी की रुचि इस नाटक में बनी हुई है.

 

आखिर इस नाटक में ऐसा क्या है जो देश-काल से परे जाकर लोगों को आकृष्ट करता है?  गिरीश कर्नाड ने कथासरित्सागर और टॉमस मान के लिखे द ट्रांसपोज्ड हेडस से उन्होंने प्रेरणा ली थी और अपने मित्रप्रख्यात रंगकर्मी बी वी कारंत को कहानी इस तरह सुनाई थी:  ‘यदि दो लोगों के सिर की अदला-बदली हो जाएऐसे में कौन सा रूप किसका होगाक्या एक पुरुष की पहचान उसके सिर से होगी या शरीर से?’ अपनी संस्मरणात्मक किताब दिस लाइफ एट प्ले में कर्नाड ने लिखा है कि इस कथा पर वे एक फिल्म बनाना चाहते थेपर कारंत ने नाटक लिखने का सुझाव दिया. हयवदन (घोड़े की सिर वाला आदमी) नाम भी उन्हीं का दिया है.

 

इस नाटक की विषय-वस्तु के लिए वे भारतीय परंपरालोकमिथक में व्याप्त कथा की ओर गए. उन्होंने लिखा है कि इस नाटक में गीत-संगीतनृत्य का जिस तरह इस्तेमाल कियाइससे पहले आधुनिक नाटकों में नहीं होता था. बाद में घासी राम कोतवाल (विजय तेंदुलकर) और चरण दास चोर (हबीब तनवीर) जैसे नाटकों में कुशलता से इसका प्रयोग हुआ और काफी सफल रहा.  वर्ष 1971 में लिखे इस नाटक को देखते हुए मुझे कर्नाड के समकालीन हिंदी के नाटककार और लेखक मोहन राकेश के नाटक आधे-अधूरे (1969)’ की याद आ रही थी. क्या जीवन मेंसंबंधों में पूर्णता की तलाश व्यर्थ हैयह नाटक देवदत्तकपिल और पद्मिनी के प्रेम त्रिकोण के इर्द-गिर्द है. पद्मिनी देवदत्त और कपिल दोनों की ओर आकर्षित है. देवदत्त की मेधा का आकर्षण और कपिल का शरीर-सौष्ठव उसे अपनी ओर खींचता हैपर जब दोनों के सिर की अदला-बदली हो जाती हैपद्मिनी की दुविधा दर्शकों के सामने मुखर हो उठता है.

 

यह नाटक शरीर और बुद्धि के द्वंद्व को सामने लाता है. प्रेमइच्छाईष्या जैसे शाश्वत भाव लोगों को आकर्षित करते रहे हैं. मुख्य कथा के साथ-साथ ही एक उप-कथा घोड़े के सिर वाले आदमी (हयवदन) की भी साथ चलती हैजिसमें हास्य का भी पुट है.

 

जहाँ आधे-अधूरे नाटक सामाजिक यथार्थ के ताने-बाने से लिखा गया हैवही ‘हयवदन’ लोक (फोक)मिथक और तंत्र-मंत्र से सामग्री उठाता है. सूत्रधारमुखौटेगुड्डे-गुड़ियों और गीत-संगीत का इस्तेमाल कथानक को कुशलता से आगे बढ़ाता है और दर्शकों को पूरे नाटक के दौरान बांध कर रखता है. उल्लेखनीय है कि इस प्रस्तुति में बी वी कारंत के दिए संगीत का ही इस्तेमाल किया गया. नाटक के शुरुआत में गणेश वंदना काफी रोचक थालेकिन यही बात पूरे नाटक के दौरान बजने वाले गीत-संगीत को लेकर नहीं कही जा सकती.  

 

इस नाटक का निर्देशन चर्चित रंगकर्मी नीलम मानसिंह चौधरी के कुशल हाथों में था और लगभग सभी पात्र राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से प्रशिक्षित थे. जाहिर हैमंचन कसा हुआ और मनोरंजक था. मूल नाटक में पद्मिनी सती हो जाती हैपर निर्देशक ने समकालीन भाव-बोध के अनुरूप इसे एक स्त्री के अस्तित्व और पहचान से जोड़ दिया हैजो आखिर में अपना रास्ता खुद चुनती है.

 

समकालीन रंगमंच में 'प्रॉप्सऔर तकनीक का बेवजह इस्तेमाल बढ़ा है. कई निर्देशक मंच पर प्रयोग के माध्यम से नवीनता लाने की कोशिश करते हैं. इस नाटक में भी मंचन के दौरान एक ट्रक मौजूद रहा. ट्रक की छत पर संगीतकारों की टोली विराजमान थी. इस चलायमान ट्रक का औचित्य समझ में नहीं आया. क्या इसके बिना नाटक की परिकल्पना संभव नहीं है? प्रसंगवशमेटा के आयोजन में  ही हिंदुस्तानी में किए गए एक अन्य नाटक  ‘एवलांच (निर्देशक, गंधर्व दीवान)जो तुर्की के नाटककार टूजनेर जुजूनलू की इसी नाम से लिखे नाटक पर आधारित थाको कमानी सभागार के मंच पर एक बंद स्पेस में किया गयाजहाँ पर तापमान बेहद कम रखा गया. साथ ही ऊंची पहाड़ियों पर तेज बहने वाली हवा (आवाज) के माध्यम से देशकाल (पहाड़ी पर बसे गाँव) का बोध करवाया गया था. दर्शकों को ठंड से बचने के लिए आयोजकों ने कंबल भी मुहैया करवाया था!

 

रंगकर्म में प्रयोग जरूरी है. 'हयवदनकी प्रासंगिकता से भी इंकार नहीं, पर समकालीन यथार्थ को संपूर्णता में व्यक्त करने के लिए हिंदी में नए नाटक लिखने होंगे, जिसका सर्वथा अभाव दिखता है.


(न्यूजक्लिक के लिए)

Sunday, March 24, 2024

इतिहास में दारा शुकोह


वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय  की किताब दारा शुकोहसंगम-संस्कृति का साधक’ का लंबे समय से इंतजार था, जो उनके गुजरने के बाद हाल ही में प्रकाशित हुई है. जीवन के आखिरी वर्षों में मुगल शाहजादा दारा शुकोह (शिकोह) पर वे शोध कर रहे थे. उनके लिए यह एक महत्वाकांक्षी परियोजना थी. जब हम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में उनके छात्र थे, तब भी वे इसकी चर्चा करते थे.

मुगल सम्राट शाहजहां का ज्येष्ठ पुत्र और उत्तराधिकारी दारा शुकोह (1615-1659) का बहुआयामी व्यक्तित्व इतिहासकारों, साहित्यकारों और भारतीय संस्कृति के अध्येताओं के लिए कई सवाल लेकर आता रहा है जिससे वे अपने लेखन में जूझते रहे हैं.

दारा ने मुसलमानों को हिंदू धर्म और संस्कृति से परिचित कराने के लिए उपनिषदों और श्रीमद्भागवत गीता का फारसी में अनुवाद किया था. हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों के बीच मेल-जोल, संवाद और एकता को लेकर वह काफी तत्पर था. यही कारण है कि एक तरफ उसने मज्म उल बहरैन (फारसी) में और दूसरी तरफ संस्कृत में समुद्र संगम किताबें लिखी. जाहिर है उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ा. राजसत्ता की लड़ाई में शायर और सूफी के इस साधक की औरंगजेब ने हत्या करवा दी, लेकिन उसके विचारों और दर्शन की अनुगूंज सुनाई देती रही.   

यह किताब आलोचना की नहीं है. मैनेजर पाण्डेय ने इसे जीवनी और इतिहास का मेल कहा है. वे लिखते हैं, “दारा की औरंगजेब ने हत्या करवाई तब लोगों ने मान लिया था कि अब संगम-संस्कृति का अंत हो गया, उदारता हार गई और कट्टरता जीत गई. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि संगम-संस्कृति की पंरपरा भारत में दारा के बहुत पहले से मौजूद थी और बहुत बाद तक फलती-फूलती रही जो आज भी मौजूद है. इस किताब में वे दारा के लेखन के माध्यम से संगम-संस्कृति के विचारों की विवेचना करते हैं. हिंदुस्तान में मौजूद इस परंपरा पर पर्याप्त रोशनी डालते हैं. साथ ही आज के समय में उसकी जरूरत को रेखांकित करते हैं.

यह किताब शहीद शाहजादासंगम-संस्कृति का साधकदारा शुकोह का लेखनसंवादधर्मी व्यक्ति और विचारक और हिंदी साहित्य में दारा शुकोह अध्याय में विभक्त है. पाण्डेय जी के लेखन में सामाजिकता और स्वतंत्रता पर जोर रहा है. स्वतंत्रता और एकता का जहाँ अभाव होता है वहीं कट्टरता पनपती है. अमीर खुसरो, कबीर, रहीम जैसे शायरों और भक्ति आंदोलन के कवियों के लेखन में हिंदू-मुस्लिम एकता की बात प्रमुखता से है. दारा का लेखन और विचार इससे प्रभावित था.

किताब में लेखक ने विलियम इरविन और इतिहासकार यदुनाथ सरकार के बीच हुए पत्राचार को उद्धृत करते हुए लिखा है कि हारनेवाला इतिहास में बहुत कम न्याय पाता है.’  दारा शुकोह भारतीय इतिहास में ट्रेजडी’ के एक नायक के रूप में सामने आता है. सत्ता के इशारे पर हुए इतिहास लेखन में दारा की निंदा हुई है, पर स्वतंत्रचेता लेखकों ने भारतीय इतिहास और संस्कृति में दारा के विशिष्ट स्थान और योगदान को रेखांकित किया है. यह किताब उसी कड़ी में है. समकालीन समय और समाज में जब धर्म के नाम पर विभेदकारी राजनीति का बोलबाला है, दारा के विचारों की प्रासंगिकता बढ़ गई है.

Sunday, March 10, 2024

कठपुतली कला में रचा संसार


 पिछले दिनों दिल्ली और चंडीगढ़ में इशारा अंतरराष्ट्रीय कठपुतली नाट्य समारोह का आयोजन किया गया. नाटक के अंतिम दिन दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेंटर में दादी पुदुमजी अपनी नई प्रस्तुति ‘बी योरसेल्फ’ लेकर मौजूद थे. क्रिश्चियन एंडरसन की बहुचर्चित कृति ‘द अग्ली डकलिंग’ पर आधारित यह कठपुतली नाटक इस अर्थ में विशिष्ट था कि निर्देशक ने पशु-पक्षियों (कठपुतलियों) को देश के विभिन्न हिस्सों के वस्त्रों मसलन इकत कलमकारी, सिल्क आदि से सजाया था. बुनकरों के विभिन्न रंगों में भारतीय संस्कृति की विविधता मंच पर दिखाई पड़ रही थी. युवा कलाकारों ने अपने अभिनय से इस नाटक को रोचक और मनोरंजक बना दिया.

बच्चों की इस कहानी की सीख बड़ों के लिए भी थी कि हर कोई अपने आप में विशिष्ट होता है और उसे उसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए. इस नाटक में हालांकि समकालीन समय और समाज की प्रतिध्वनियाँ भी थीं. आश्चर्य नहीं कि दर्शकों में विभिन्न आयु वर्ग के लोग शामिल थे.
इशारा ट्रस्ट के तहत कठपुतली कला को समर्पित यह 20वाँ समारोह था, जिसके केंद्र में दादी पुदुमजी रहे हैं. पिछले करीब चालीस सालों से कठपुतली कला से जुड़े और पद्मश्री से सम्मानित दादी पदुमजी बातचीत में कहते हैं कि ‘हमने इस समारोह को बहुत छोटे से स्तर पर शुरु किया था, पर धीर-धीरे इसका विस्तार अंतरराष्ट्रीय फलक तक होता गया’. वे जोड़ते हैं कि टिकट से मिली राशि और स्कूलों के सहयोग से यह संभव होता रहा है. साथ ही आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि क्यों उन्हें शो के लिए ‘स्पांसर’ नहीं मिलते.
इसमें कोई संदेह नहीं कि इन वर्षों में इशारा ने देश-विदेश की कठपुतली कला से जुड़े कलाकारो के लिए एक मंच प्रदान किया है. इस बार भी भारत समेत ब्राजील, फ्रांस, कोरिया, रूस, ताइवान, अमेरिका, तुर्की और श्रीलंका के कलाकार समारोह में हिस्सा ले रहे थे. कार्यक्रम में मुझे ग्रीस से आई कुछ महिला कलाकार मिली जो कठपुतली कला के वर्कशॉप में भाग लेने दिल्ली आईं हुई थी. इस समारोह में मौखिक और गैर-मौखिक दोनों तरह की प्रस्तुतियों में विभिन्न विषयों मसलन, प्रेम, मानवता, विविधता के साथ इतिहास और विभिन्न संस्कृतियों का समावेश था.
देश में कठपुतली का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है. पारंपरिक और आधुनिक दोनों तरह की कठपुतली कला का चलन अभी भी बना हुआ है, हालांकि वर्तमान में टेलीविजन और सिनेमा के विस्तार ने कला के इस रूप को लोगों से दूर कर दिया है. फिर भी देश के विभिन्न कोनों में युवा कलाकार अपनी प्रस्तुतियों को लेकर गाहे-बगाहे उपस्थित होते रहते हैं. अनुरुपा रॉय एक ऐसी ही कलाकार है जिन्हें काफी प्रतिष्ठा प्राप्त है. वे अपनी संस्था ‘कठकथा’ के माध्यम से देश भर में प्रस्तुतियों से दर्शकों का मनोरंजन करती रही है. इशारा के प्रोडक्शन की तरह ही अपनी प्रस्तुतियों में वे मल्टी-मीडिया का इस्तेमाल करती हैं.
बहरहाल, यह पूछने पर कि वे इस कला का क्या भविष्य देखते हैं, दादी पुदुमजी कहते हैं कि ‘जो अन्य कलाओं का भविष्य है वही इस कला का भी है. आपको अपना भविष्य खुद बनाना पड़ता है. कलाकारों को नई प्रस्तुतियाँ के साथ आगे आना होगा. उन्हें वर्कशॉप करना होगा.’

Remembering Kumar Shahani, India’s Foremost Avant-Garde Film Director


 For the people of my generation, who grew up in the 1990s, Indian new-wave cinema was a kind of esoteric art and idea. During the early ‘90s in Darbhanga, I still remember seeing a poster of the movie ‘Salim Langde Pe Mat Ro’ and wondering what kind of film it would be.

Truth is, new-wave cinema died in the ‘80s and what we found in the ‘90s, with the opening of the market, was that the genre of Hindi cinema shifted to diaspora and gangster movies. At the same time, with the coming of the internet and YouTube, the movies of parallel cinema, although in bad print, got available online and reached a wider audience.

Interestingly, now, even in Darbhanga, people discuss young filmmakers like Achal Mishra (‘Gamak Ghar’, ‘Dhuin’) and Partha Saurabh (‘Pokhar Ke Dunu Paar’) and their movies. It has got a name — the Darbhanga New Wave. Certainly, the aesthetics of Darbhanga New Wave are influenced by the forefathers of the Indian New Wave cinema of the ‘70s.

Kumar Shahani (1940-2024), who died at the age of 83 in Kolkata recently, was one of India’s foremost avant-garde film directors. When his classic film ‘Maya Darpan’ turned 50 in November 2022, I called him for an interview. He was in Pune and asked me to send questions by email, to which he promptly replied. When the interview was published, I shared the link with him and wrote: “I hope to talk to you at length, when you are back in Delhi.” Alas! It would never happen, but I had the good fortune to interact with him on a few occasions in the past.

If Mani Kaul’s debut film ‘Uski Roti’ and Mrinal Sen’s ‘Bhuvan Shome’ started the New Cinema movement in India, Shahani’s first feature film ‘Maya Darpan [Mirror of Illusions]’, released in 1972, is a classic of parallel cinema. He was known for the formal experimentation in his movies.

Based on famous Hindi writer Nirmal Verma’s eponymous short story, the film depicts the lonely world of the protagonist Taran. But the film goes beyond the story. Taran’s rebellion against feudalism is manifested in dance sequences. Kumar told me that Verma was not happy with it. He said: “Nirmal was conditioned by the films that he had seen. We never saw eye-to-eye on any issue!”

I asked him how he looked back at ‘Maya Darpan’ after 50 years. He replied: “Because of the jubilee of ‘Maya Darpan’, a great deal of interest is being shown around the world in my work, and new queries for future productions from the home of Hollywood have reached me. When ‘Maya Darpan’ was made, the Euro-American response was enthusiastic. It was recognised as a breakthrough in cinematic language — with colour, movement and narrative creating a new musicality, as it were.”

He always struggled to raise finances for his films but never compromised with his style of filmmaking. In his 50-year-long career, besides ‘Maya Darpan’, he only managed to make ‘Tarang’ (1984), ‘Khayal Gatha’ (1989), ‘Kasba’ (1990), ‘Char Adhyay’ (1997), and a few short documentaries. ‘Char Adhyay’, which is based on Rabindranath Tagore’s novel, is about self-determination and violence in pre-independent India. He said to me: “You will find Ritwik (Ghatak) da a lot in this movie.” Although he had Marxist leanings, we found a kind of spiritualism in his movies. He assisted the great French filmmaker Robert Bresson (‘Une Femme Douce’, 1969) when he was in Paris on a fellowship. He was influenced by the concept of Moksha/Nirvana, which we see in Bresson’s films. We don’t find a watertight compartment between ideology and aesthetics in Shahani’s films.

A few years ago, during a conversation about parallel cinema, he told me that we can’t compare popular with parallel because the main purpose of mainstream cinema is to make profits, whereas the kind of movies he and his ilk made was art. He was also critical of shopping Mall cinema culture and viewing a movie there. Like ‘slow reading’, his films ask for ‘slow viewing’. In fact, they ask for a new viewer who is immersed not only in cinema but Indian tradition of music, dance, and painting. His films are an amalgamation of everything that is soaked in the Indian civilisation.

Shahani always discussed his birthplace in Larkana (Pakistan), near Mohenjo-Daro. He considered himself, like Ghatak, a product of the Partition. He said that he had completed a movie based on Gita Govinda — ‘Priye Charuseele’, which is yet to be released. Even during his last days, he was brimming with many ideas.

In 2014, I was at the Indian International Centre (IIC), Delhi to listen to a lecture on Mani Kaul’s films. He was there too. I had a copy of ‘Uncloven Space’, a translation of Kaul’s conversation with Udyan Vajpayee (‘Abhed Aakash’). I had a brief conversation with him about Kaul, Ghatak (his guru at the FTII) and parallel cinema. Later, I asked him to sign the book and write something for my year-old daughter. He did. “Kaithi, hope that you will grow up to be a connoisseur like your father,” he wrote. He had expectations not only from my generation but from the future too!

Monday, February 26, 2024

कुमार शहानी: एक प्रयोगधर्मी फिल्मकार का जाना


अवांगार्द फिल्मकार और कला विचारक के रूप में कुमार शहानी (1940-2024) की दुनिया भर में एक विशिष्ट पहचान थी. वे हिंदी समांतर सिनेमा के पुरोधा थे. उनकी बहुचर्चित फिल्म माया दर्पण (1972) के पचास साल पूरे होने पर जब मैंने उनसे बातचीत किया था तब भी वे फिल्म बनाने को लेकर उत्सुक थे. उन्होंने मुझे कहा था कि फिल्म के पचास वर्ष पूरे होने पर दुनिया भर में उनकी फिल्मों के प्रति रुचि दिखाई जा रही है और भविष्य में फिल्म निर्माण को लेकर हॉलीवुड से भी पूछताछ किया जा रहा है.

अब उनकी फिल्में, लेखन, व्याख्यान और मुलाकातें ही हमारी स्मृतियों में रहेंगी. वे सहज और सौम्य व्यक्ति थे. कुछ वर्ष पहले जब एक बार बातचीत के लिए मैंने उन्हें फोन किया और परिचय देते हुए कहा कि मिलना चाहता हूँ, उन्होंने दोपहर के समय दिल्ली के आईआईसी में बुलाया. मैंने कहा कि—सर, मैं दिन में नौकरी करता हूँ, क्या फोन पर बात हो सकती है. उन्होंने शाम का समय दिया. फिर मैंने पूछा कि छह बजे के बाद यदि बात करुँ तो उन्हें दिक्कत तो नहीं होगी? उन्होंने बेहद शालीनता से कहा कि-नहीं. फिर जोड़ा-नौकरी करना जरूरी है.
‘माया दर्पण’ (1972), ‘तरंग’ (1984), ‘ख्याल गाथा’ (1989), ‘कस्बा’ (1990), ‘चार अध्याय’ (1997) आदि फिल्मों को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. वे सिनेमा के विचारक और एक कुशल शिक्षक भी थे. मुझे याद है कि करीब बीस साल पहले उन्होंने जेएनयू में कार्ल थियोडोर ड्रेयर की चर्चित फिल्म द पैशन ऑफ जॉन ऑफ आर्क (1928) पर एक व्याख्यान दिया था.
पिछली सदी के साठ के दशक में समातंर सिनेमा के अन्य चर्चित फिल्मकार मणि कौल के संग उन्होंने पुणे स्थित फिल्म संस्थान (एफटीआईआई) से फिल्म निर्देशन का प्रशिक्षण लिया था. फिल्म संस्थान में उन्हें ऋत्विक घटक जैसे गुरु मिले और ‘एपिक फार्म’ से उनका परिचय करवाया, वहीं छात्रवृत्ति लेकर जब वे पेरिस गए तब महान फिल्मकार रॉबर्ट ब्रेसां के संग ‘उन फाम डूस (ए जेंटल वुमन, 1969)’ फिल्म में सहायक निर्देशक के रूप में जुड़े. उनकी फिल्मों पर दोनों ही निर्देशकों का असर है, लेकिन फिल्म-निर्माण की शैली उनकी निजी है.
बिंब और ध्वनि का कुशल संयोजन और फॉर्म के प्रति एकनिष्ठता उनकी फिल्मों में जैसा दिखता है, सिनेमा के इतिहास में दुर्लभ है. उन्होंने कहा था कि ‘मैं सौभाग्यशाली था कि ब्रेसां और ऋत्विक घटक जैसे गुरुओं ने मेरा लालन-पालन किया.’ जहाँ ‘माया दर्पण’ फिल्म में तरन के ऊपर ब्रेसां की चर्चित फिल्म ‘मूशेत’ (1967) के केंद्रीय चरित्र की छाप दिखती है, वही ‘मिनिमलिज्म’ का प्रभाव भी. ब्रेसां की फिल्मों में जो मोक्ष या निर्वाण की अवधारणा है, उससे भी वे प्रभावित रहे हैं. रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘चार अध्याय’ पर आधारित फिल्म पर ऋत्विक घटक का असर है.
उनकी सभी फिल्मों में ‘फॉर्म’ के प्रति एक अतिरिक्त सजगता और संवेदनशीलता दिखती है. निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित ‘माया दर्पण’ फिल्म में हवेली को जिस तरह फिल्माया गया है वह सामंती परिवेश, केंद्रीय पात्र ‘तरन’ के मनोभावों, एकाकीपन को दर्शाने में कामयाब है. रंगों का कुशल संयोजन इस फिल्म की विशेषता है. वे कहते थे ‘रंग हमारे होने की खुशबू को परिभाषित करता है.’ ‘माया दर्पण’ से लेकर ‘चार अध्याय’ तक ध्वनि का विशिष्ट प्रयोग उल्लेखनीय है.
यह दुर्भाग्य ही है कि इस ‘अवांगार्द’ फिल्मकार को हमेशा संसाधन की कमी से जूझना पड़ा, लेकिन उपभोक्तावादी दौर में अपनी कला से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. वे सिनेमा माध्यम पर तकनीक के बढ़ते जोर को लेकर चिंतित रहते थे.
शहानी अक्सर अपने जन्म स्थान लरकाना (सिंध, पाकिस्तान) की चर्चा करते थे. साथ ही रंगों के मेल और भारतीय सभ्यता और संस्कृति में इसकी केंद्रीयता को रेखांकित करते रहे. वे खुद को घटक की तरह ही विभाजन (पार्टीशन) की संतान कहते थे.
‘माया दर्पण’ निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित है, पर यह फिल्म उसका अतिक्रमण करती है. शहानी मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित थे, फिल्म में सामंतवाद का विरोध है. इस फिल्म में उनकी वर्ग-चेतन दृष्टि स्पष्ट दिखती है. जब मैंने फिल्म में कहानी से अलग ‘ट्रीटमेंट’ के बाबत सवाल पूछा था तब उन्होंने कहा था: “मैंने ‘माया दर्पण’ में सामंतवादी उत्पीड़न दिखाने की कोशिश की है. इस फिल्म के अंत में डांस सीक्वेंस है, उसके माध्यम से मैंने इस उत्पीड़न को तोड़ने की कोशिश की है. उस डांस में जो ऊर्जा है वह सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ है. यह काली के रंग में भी है.”
कुमार शहानी कहते थे कि जब आप फिल्म बनाते हैं तब आप एक विशिष्ट काम करने की इच्छा रखते हैं-- खास कर जब आप स्वतंत्रता की बात करते हैं. एक तरह से वैयक्तिक स्वतंत्रता इस फिल्म की मूल भावना है. कला में यह स्वतंत्रता किस रूप में आए, शहानी की यह फिल्म इस बात की खोजबीन करती है.
कुमार शहानी की फिल्मों में बिंब (इमेज) सायास रूप से भारतीय चित्रकला से प्रेरित दिखते हैं. अमित दत्ता, गुरविंदर सिंह जैसे समकालीन फिल्मकारों पर उनका स्पष्ट प्रभाव है. माया दर्पण के बाद की उनकी फिल्मों का अध्ययन संगीत से उनके जुड़ाव के आधार पर ही किया जा सकता है. उनकी फिल्मों पर हिंदी में गंभीर विवेचना की जरूरत है. ये फिल्में भारतीय सौंदर्यशास्त्र में पगी हैं, राजनीतिक विचारधारा का यहाँ समावेश है. असल में, शहानी दोनों के बीच कुशलता से आवाजाही करते रहे.