एक पत्रकार के नोट्स
Thursday, April 25, 2024
एक बातचीत: सिनेमा के समंदर से कैसे निकालें काम की फिल्में
Sunday, April 21, 2024
पॉप संगीत का चमकीला सितारा
हिंदी सिनेमा के इस सदी में व्यावसायिक और समांतर की रेखा धुंधली हुई
है. विशाल भारद्वाज,
अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली, हंसल मेहता जैसे फिल्मकार इसके अगुआ हैं. पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर रिलीज
हुई अली की फिल्म ‘अमर
सिंह चमकीला’ विषय, शिल्प और फिल्म
निर्माण की दृष्टि से व्यावसायिक और समांतर सिनेमा के बीच एक पुल की तरह है.
आश्चर्य नहीं है कि समांतर सिनेमा के पुरोधा मणि कौल इम्तियाज अली की तारीफ करते
थे.
बहरहाल, हिंदी सिनेमा में पंजाब का दलित समाज विरले दिखता है, जबकि पंजाब मूल के फिल्मकारों का शुरू से ही दबदबा रहा है. ऐसा क्यों?
अमर सिंह चमकीला की पहचान एक ऐसे लोकप्रिय पंजाबी गायक की थी,
जो दलित परिवार में जन्म लेने के बावजूद अपनी प्रतिभा और संघर्ष के
बूते पिछली सदी के 80 के दशक में लोगों के दिलों पर राज करते
थे. यही दौर था जब पंजाब में चरमपंथियों के आतंक के साये में लोग जी रह रहे थे.
इसी दौर में देश में ‘कैसेट कल्चर’ के
मार्फत पॉप संगीत का उभार तेजी से हो रहा था. प्रसंगवश, चर्चित
गायक गुरदास मान चमकीला के समकालीन रहे.
जैसा कि नाम से स्पष्ट है यह फिल्म अमर सिंह चमकीला (1960-1988) का जीवनवृत्त है
जिसे अभिनेता दिलजीत दोसांझ ने अपने अभिनय और गायन से जीवंत कर दिया है. उन्हें
परिणीति चोपड़ा (अमरजोत कौर की भूमिका में) का भरपूर सहयोग मिला है. निर्देशक ने
संवेदनशीलता के साथ चमकीला के जीवन संघर्ष और दुखद अंत को दर्शकों के सामने लाया
है. फिल्म में जिस तेजी से दृश्यों को संयोजित किया गया है वह खटकता है. बार-बार
विंडो में चमकीला-अमरजोत की पुरानी तस्वीरों (फुटेज) को दिखाया गया है, जिसे संपादित जा सकता था.
पंजाबी लोक गायन में सुरिंदर कौर, असा सिंह मस्ताना, लाल चंद यमला
जाट की गायकी को लोग आज भी याद करते हैं. 80 के दशक में
चमकीला की चमक ने सबको पीछे छोड़ दिया. असल में, पॉप संगीत
अपने भड़कीले बोल और तेज संगीत की वजह से लोगों से जल्दी जुड़ते हैं. शादी-विवाह
के अखाड़े में चमकीला की खूब मांग हो रही थी, उसके कैसेट
बाजार में ‘ब्लैक’ में बिकते थे.
सफलता के साथ उसे कई मोर्चों पर लड़ना पड़ा था. अमरजोत कौर से उसकी दूसरी शादी जहाँ कथित उच्च
जाति के लोगों को खटक रही थी, वहीं समकालीन गायकों की ईर्ष्या-द्वेष भी उसे झेलना पड़ रहा था. साथ ही
चरमपंथियों, धार्मिक संगठनों के निशाने पर भी वह था. चमकीला
और अमरजोत की हत्या कर दी गई.
जीवन में और हत्या के बाद भी जिस वजह से उसकी आलोचना होती रही वह
अश्लील, द्विअर्थी गाने थे,
जो स्त्री विरोधी थे. इस तरह के गानों के पक्ष में चमकीला की अपनी
दलीलें थी. बाजार की मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के तहत उसका कहना था कि लोग यही
चाहते हैं!
गीत-संगीत या कोई भी कला यदि अपने समय की उपज होती है तो समाज को
परिष्कृत भी करती है. वह मूल्य निरपेक्ष नहीं हो सकती. निर्देशक ने फिल्म में ‘अश्लीलता’ को लेकर एक विमर्श रचा है, जो दर्शकों को उकसाता है,
पर कोई जवाब नहीं देता. जवाब दर्शकों को ही देना है.
Sunday, April 07, 2024
पहरेदारी में जीवन: एवलांच
पिछले महीने 'महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स’ (मेटा) के तहत दिल्ली में हुए नाटकों के प्रदर्शन में ‘एवलांच (हिमस्खलन)’ नाटक अपनी प्रस्तुति, विषय-वस्तु और अदाकारी को लेकर चर्चा में रहा. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के स्नातक गंधर्व दीवान के निर्देशन में हिंदुस्तानी भाषा में हुए इस नाटक का ‘स्टेज डिजाइन’ अपने-आप में अनूठा था.
Tuesday, March 26, 2024
शरीर और बुद्धि के द्वंद्व: फिर से हयवदन
चर्चित नाटककार गिरीश कर्नाड का लिखा ‘'हयवदन' नाटक आधुनिक रंगमंच में क्लासिक का दर्जा रखता है. मूल कन्नड़ भाषा में लिखे इस नाटक का पिछले पचास सालों में विभिन्न भाषाओं में अनेक बार मंचन हुआ है. हिंदुस्तानी में (अनुवाद बी वी कारंत) इस नाटक का मंचन ‘महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स’ (मेटा) के तहत पिछले दिनों दिल्ली में हुआ और बेस्ट ऑनसंबल (best ensemble) और सहायक अदाकार (स्त्री) की भूमिका के लिए पल्लवी जाधव को पुरस्कृत भी किया गया. सभागार जिस तरह भरा हुआ था, कहा जा सकता है कि नयी पीढ़ी की रुचि इस नाटक में बनी हुई है.
आखिर इस नाटक में ऐसा क्या है जो देश-काल से परे जाकर लोगों को आकृष्ट करता है? गिरीश कर्नाड ने कथासरित्सागर और टॉमस मान के लिखे ‘द ट्रांसपोज्ड हेडस’ से उन्होंने प्रेरणा ली थी और अपने मित्र, प्रख्यात रंगकर्मी बी वी कारंत को कहानी इस तरह सुनाई थी: ‘यदि दो लोगों के सिर की अदला-बदली हो जाए, ऐसे में कौन सा रूप किसका होगा? क्या एक पुरुष की पहचान उसके सिर से होगी या शरीर से?’ अपनी संस्मरणात्मक किताब ‘दिस लाइफ एट प्ले’ में कर्नाड ने लिखा है कि इस कथा पर वे एक फिल्म बनाना चाहते थे, पर कारंत ने नाटक लिखने का सुझाव दिया. ‘हयवदन’ (घोड़े की सिर वाला आदमी) नाम भी उन्हीं का दिया है.
इस नाटक की विषय-वस्तु के लिए वे भारतीय परंपरा, लोक, मिथक में व्याप्त कथा की ओर गए. उन्होंने लिखा है कि इस नाटक में गीत-संगीत, नृत्य का जिस तरह इस्तेमाल किया, इससे पहले आधुनिक नाटकों में नहीं होता था. बाद में ‘घासी राम कोतवाल’ (विजय तेंदुलकर) और ‘चरण दास चोर’ (हबीब तनवीर) जैसे नाटकों में कुशलता से इसका प्रयोग हुआ और काफी सफल रहा. वर्ष 1971 में लिखे इस नाटक को देखते हुए मुझे कर्नाड के समकालीन हिंदी के नाटककार और लेखक मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे (1969)’ की याद आ रही थी. क्या जीवन में, संबंधों में पूर्णता की तलाश व्यर्थ है? यह नाटक देवदत्त, कपिल और पद्मिनी के प्रेम त्रिकोण के इर्द-गिर्द है. पद्मिनी देवदत्त और कपिल दोनों की ओर आकर्षित है. देवदत्त की मेधा का आकर्षण और कपिल का शरीर-सौष्ठव उसे अपनी ओर खींचता है, पर जब दोनों के सिर की अदला-बदली हो जाती है, पद्मिनी की दुविधा दर्शकों के सामने मुखर हो उठता है.
यह नाटक शरीर और बुद्धि के द्वंद्व को सामने लाता है. प्रेम, इच्छा, ईष्या जैसे शाश्वत भाव लोगों को आकर्षित करते रहे हैं. मुख्य कथा के साथ-साथ ही एक उप-कथा घोड़े के सिर वाले आदमी (हयवदन) की भी साथ चलती है, जिसमें हास्य का भी पुट है.
जहाँ ‘आधे-अधूरे’ नाटक सामाजिक यथार्थ के ताने-बाने से लिखा गया है, वही ‘हयवदन’ लोक (फोक), मिथक और तंत्र-मंत्र से सामग्री उठाता है. सूत्रधार, मुखौटे, गुड्डे-
इस नाटक का निर्देशन चर्चित रंगकर्मी नीलम मानसिंह चौधरी के कुशल हाथों में था और लगभग सभी पात्र राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से प्रशिक्षित थे. जाहिर है, मंचन कसा हुआ और मनोरंजक था. मूल नाटक में पद्मिनी सती हो जाती है, पर निर्देशक ने समकालीन भाव-बोध के अनुरूप इसे एक स्त्री के अस्तित्व और पहचान से जोड़ दिया है, जो आखिर में अपना रास्ता खुद चुनती है.
समकालीन रंगमंच में 'प्रॉप्स' और तकनीक का बेवजह इस्तेमाल बढ़ा है. कई निर्देशक मंच पर प्रयोग के माध्यम से नवीनता लाने की कोशिश करते हैं. इस नाटक में भी मंचन के दौरान एक ट्रक मौजूद रहा. ट्रक की छत पर संगीतकारों की टोली विराजमान थी. इस चलायमान ट्रक का औचित्य समझ में नहीं आया. क्या इसके बिना नाटक की परिकल्पना संभव नहीं है? प्रसंगवश, मेटा के आयोजन में ही हिंदुस्तानी में किए गए एक अन्य नाटक ‘एवलांच (निर्देशक, गंधर्व दीवान)’, जो तुर्की के नाटककार टूजनेर जुजूनलू की इसी नाम से लिखे नाटक पर आधारित था, को कमानी सभागार के मंच पर एक बंद स्पेस में किया गया, जहाँ पर तापमान बेहद कम रखा गया. साथ ही ऊंची पहाड़ियों पर तेज बहने वाली हवा (आवाज) के माध्यम से देशकाल (पहाड़ी पर बसे गाँव) का बोध करवाया गया था. दर्शकों को ठंड से बचने के लिए आयोजकों ने कंबल भी मुहैया करवाया था!
रंगकर्म में प्रयोग जरूरी है. 'हयवदन' की प्रासंगिकता से भी इंकार नहीं, पर समकालीन यथार्थ को संपूर्णता में व्यक्त करने के लिए हिंदी में नए नाटक लिखने होंगे, जिसका सर्वथा अभाव दिखता है.
Sunday, March 24, 2024
इतिहास में दारा शुकोह
वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय की किताब ‘दारा शुकोह: संगम-संस्कृति का साधक’ का लंबे समय से इंतजार था, जो उनके गुजरने के बाद हाल ही में प्रकाशित हुई है. जीवन के आखिरी वर्षों में मुगल शाहजादा दारा शुकोह (शिकोह) पर वे शोध कर रहे थे. उनके लिए यह एक महत्वाकांक्षी परियोजना थी. जब हम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में उनके छात्र थे, तब भी वे इसकी चर्चा करते थे.
मुगल सम्राट शाहजहां का ज्येष्ठ पुत्र और उत्तराधिकारी दारा शुकोह (1615-1659) का बहुआयामी व्यक्तित्व इतिहासकारों, साहित्यकारों और भारतीय संस्कृति के अध्येताओं के लिए कई सवाल लेकर आता रहा है जिससे वे अपने लेखन में जूझते रहे हैं.
दारा ने मुसलमानों को हिंदू धर्म और संस्कृति से परिचित कराने के लिए उपनिषदों और श्रीमद्भागवत गीता का फारसी में अनुवाद किया था. हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों के बीच मेल-जोल, संवाद और एकता को लेकर वह काफी तत्पर था. यही कारण है कि एक तरफ उसने ‘मज्म ‘उल बहरैन’ (फारसी) में और दूसरी तरफ संस्कृत में ‘समुद्र संगम’ किताबें लिखी. जाहिर है उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ा. राजसत्ता की लड़ाई में शायर और सूफी के इस साधक की औरंगजेब ने हत्या करवा दी, लेकिन उसके विचारों और दर्शन की अनुगूंज सुनाई देती रही.
यह किताब आलोचना की नहीं है. मैनेजर पाण्डेय ने इसे जीवनी और इतिहास का मेल कहा है. वे लिखते हैं, “दारा की औरंगजेब ने हत्या करवाई तब लोगों ने मान लिया था कि अब संगम-संस्कृति का अंत हो गया, उदारता हार गई और कट्टरता जीत गई. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि संगम-संस्कृति की पंरपरा भारत में दारा के बहुत पहले से मौजूद थी और बहुत बाद तक फलती-फूलती रही जो आज भी मौजूद है.” इस किताब में वे दारा के लेखन के माध्यम से संगम-संस्कृति के विचारों की विवेचना करते हैं. हिंदुस्तान में मौजूद इस परंपरा पर पर्याप्त रोशनी डालते हैं. साथ ही आज के समय में उसकी जरूरत को रेखांकित करते हैं.
यह किताब ‘शहीद शाहजादा’, ‘संगम-संस्कृति का साधक’, ‘दारा शुकोह का लेखन’, ‘संवादधर्मी व्यक्ति और विचारक’ और ‘हिंदी साहित्य में दारा शुकोह’ अध्याय में विभक्त है. पाण्डेय जी के लेखन में सामाजिकता और स्वतंत्रता पर जोर रहा है. स्वतंत्रता और एकता का जहाँ अभाव होता है वहीं कट्टरता पनपती है. अमीर खुसरो, कबीर, रहीम जैसे शायरों और भक्ति आंदोलन के कवियों के लेखन में हिंदू-मुस्लिम एकता की बात प्रमुखता से है. दारा का लेखन और विचार इससे प्रभावित था.
किताब में लेखक ने विलियम इरविन और इतिहासकार यदुनाथ सरकार के बीच हुए पत्राचार को उद्धृत करते हुए लिखा है कि ‘हारनेवाला इतिहास में बहुत कम न्याय पाता है.’ दारा शुकोह भारतीय इतिहास में ‘ट्रेजडी’ के एक नायक के रूप में सामने आता है. सत्ता के इशारे पर हुए इतिहास लेखन में दारा की निंदा हुई है, पर स्वतंत्रचेता लेखकों ने भारतीय इतिहास और संस्कृति में दारा के विशिष्ट स्थान और योगदान को रेखांकित किया है. यह किताब उसी कड़ी में है. समकालीन समय और समाज में जब धर्म के नाम पर विभेदकारी राजनीति का बोलबाला है, दारा के विचारों की प्रासंगिकता बढ़ गई है.
Sunday, March 10, 2024
कठपुतली कला में रचा संसार
पिछले दिनों दिल्ली और चंडीगढ़ में इशारा अंतरराष्ट्रीय कठपुतली नाट्य समारोह का आयोजन किया गया. नाटक के अंतिम दिन दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेंटर में दादी पुदुमजी अपनी नई प्रस्तुति ‘बी योरसेल्फ’ लेकर मौजूद थे. क्रिश्चियन एंडरसन की बहुचर्चित कृति ‘द अग्ली डकलिंग’ पर आधारित यह कठपुतली नाटक इस अर्थ में विशिष्ट था कि निर्देशक ने पशु-पक्षियों (कठपुतलियों) को देश के विभिन्न हिस्सों के वस्त्रों मसलन इकत कलमकारी, सिल्क आदि से सजाया था. बुनकरों के विभिन्न रंगों में भारतीय संस्कृति की विविधता मंच पर दिखाई पड़ रही थी. युवा कलाकारों ने अपने अभिनय से इस नाटक को रोचक और मनोरंजक बना दिया.
Remembering Kumar Shahani, India’s Foremost Avant-Garde Film Director
For the people of my generation, who grew up in the 1990s, Indian new-wave cinema was a kind of esoteric art and idea. During the early ‘90s in Darbhanga, I still remember seeing a poster of the movie ‘Salim Langde Pe Mat Ro’ and wondering what kind of film it would be.
Monday, February 26, 2024
कुमार शहानी: एक प्रयोगधर्मी फिल्मकार का जाना
अवांगार्द फिल्मकार और कला विचारक के रूप में कुमार शहानी (1940-2024) की दुनिया भर में एक विशिष्ट पहचान थी. वे हिंदी समांतर सिनेमा के पुरोधा थे. उनकी बहुचर्चित फिल्म माया दर्पण (1972) के पचास साल पूरे होने पर जब मैंने उनसे बातचीत किया था तब भी वे फिल्म बनाने को लेकर उत्सुक थे. उन्होंने मुझे कहा था कि फिल्म के पचास वर्ष पूरे होने पर दुनिया भर में उनकी फिल्मों के प्रति रुचि दिखाई जा रही है और भविष्य में फिल्म निर्माण को लेकर हॉलीवुड से भी पूछताछ किया जा रहा है.